संजीव सिन्हा और मैं यूं तो बहुत पुराने मित्र हैं और मित्रता की कोई कसौटी नहीं होती। हम दोनों सन 2000 से दोस्त हैं और विद्यार्थी परिषद में साथ ही काम भी किया है। हम दोनों की मित्रता बहुत कम लोगों को समझ में आती है, क्योंकि दोनों अक्सर किसी भी विषय पर वाद-विवाद करते हुए, तेज वार्तालाप करना , झगड़े पर उतारू तक हो जाना आम बात है। एक ही चीज़ बहुत समान है और वो है राष्ट्रवाद। हम अक्सर मिलते रहते हैं और चर्चा का विषय यही होता है की इतनी सारी वेबसाइट है लेकिन ऐसी एक भी नहीं जो राष्ट्रवाद समर्थित ही और सारे दबाव व प्रभाव से मुक्त हो।
मैं भी अक्सर यही सोचता था कि एक वेबसाइट ऐसी हो जहाँ पर लोग बिना किसी झिझक के राष्ट्रवादी पत्रकारिता के साथ वामपंथी महक भी ले सकें क्योंकि मुझे हमेशा लगता था कि जो पांचजन्य पढ़ते हैं वो लोकलहर नहीं पढ़ते और लोकलहर वाले तो पांचजन्य देखते भी नहीं। विचारों का एकाकीपन मुझे सालता था।
दूसरी तरफ जो स्वतंत्र ब्लॉगर थे वे लोग बेलगाम थे, ना तो भाषा का पहरा, ना ही विचारों का नियंत्रण। हमें लगता था एक ऐसी वेबसाइट हो जहाँ पर बिना किसी लाग लपेट के लोग अपने भावनाओं को व्यक्त कर सकें और उस की एक संपादकीय नीति भी हो।
दूसरी तरफ हिंदी में ब्लॉग पर लिखने वाले लोग भी बहुत कम थे और उन ब्लॉगों की पहुंच भी बहुत कम लोगों तक थी। ये जरूरी भी नहीं कि हर ब्लॉग को सभी लोग जानते हों और वो ब्लॉग पर जा कर पढ़ें।
हरदिन की तरह आज फिर घुमते-टहलते संजीव सिन्हा से मिलने खान मार्केट स्थित मुकर्जी न्यास ऑफिस गया था। आज फिर से वही चर्चा कि यार ब्लॉग सब कोई नहीं पढ़ते हैं, अगर तुम एक हिंदी की न्यूज़ वेबसाइट बना दो तो मैं अपना कुछ समय दे कर उसे चला सकता हूँ, तुम हमें सिखा देना उसे लगातार अपडेट करता रहूंगा और वेबसाइट राष्ट्रवादी विचारों से ओत-प्रोत होगा और दूसरे विचार के लोग भी लेख भेज सकेंगें। लेकिन अक्सर ये बातचीत सिर्फ चर्चा ही बन कर रह जाता था। पता नहीं क्यों उस दिन मुझे उसकी बात मान कर मैं उसके ऑफिस कंप्यूटर पर ही डोमेन नाम ढूंढने लगा, दोनों मिल कर बहुत सारे नाम सर्च किये पर कोई ढंग का नाम नहीं मिल रहा था। थक कर संजीव की आँख वहीं कुर्सी पर लग गयी, लेकिन मैं लगातार नाम सर्च कर रहा था। अचानक से सामने की मेज़ पर पड़ी 'प्रथम प्रवक्ता' मैगज़ीन पर मेरी नज़र गई और मैंने डोमेन सर्च इंडिया में प्रवक्ता डॉट कॉम नाम को ढूँढा, आश्चर्य वो खाली था, पहले तो मुझे अपने आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, फिर दुबारा देखा, तिबारा देखा ये नाम सचमुच में खाली था, मेरी दिल की धड़कनें बढ़ गयीं थी मैंने झट से 'प्रवक्ता डॉट कॉम' नाम को बुक किया एवं दुबारा से चेक किया तो 'प्रवक्ता डॉट कॉम' नाम मेरे खाते में दिखा भी रहा था। सच मानिये उस पल मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने कोई कोहिनूर का हीरा ढूंढ़ लिया हो।
मैंने संजीव को जगाया और बताया की मुझे प्रवक्ता डॉट कॉम नाम का डोमेन ले लिया है, पहले तो उसे मेरे पर विश्वास ही नहीं हुआ लेकिन जब वेबसाइट पर अपने एकाउंट में दिखाया तब जा कर वह माना। पता नहीं आगे क्या होगा पर आज से ही 'प्रवक्ता डॉट कॉम' वेबसाइट पर काम शुरू कर चुका हूँ, मेरी ये कोशिश रहेगी की जब भी ये वेबसाइट बने तब इससे जुड़ने वाले लोग किसी भी विचार के हों पर राष्ट्रवादी हों, अब समय ही बताएगा की 'प्रवक्ता डॉट कॉम' वेबसाइट की दुनिया में कितना प्रखरता से उभरती है लेकिन हाँ आज १६ अक्टूबर 2008 प्रवक्ता का जन्म तो हो ही चुका है।
मैं भी अक्सर यही सोचता था कि एक वेबसाइट ऐसी हो जहाँ पर लोग बिना किसी झिझक के राष्ट्रवादी पत्रकारिता के साथ वामपंथी महक भी ले सकें क्योंकि मुझे हमेशा लगता था कि जो पांचजन्य पढ़ते हैं वो लोकलहर नहीं पढ़ते और लोकलहर वाले तो पांचजन्य देखते भी नहीं। विचारों का एकाकीपन मुझे सालता था।
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